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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2802
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- तत्पुरुष समास की रूपसिद्धि कीजिए।

उत्तर -

कृष्णश्रितः - (कृष्ण का आश्रय लिया हुआ)।

लौकिक विग्रह - कृष्णं श्रितः
अलौकिक विग्रह - कृष्ण अम् + श्रित सु।

यहाँ पर द्वितीयान्त सुबन्त पद 'कृष्ण अम्' का 'श्रित सु' इस सुबन्त के साथ द्विताय श्रितातीतपतितगतात्यस्त प्राप्तापन्नैः सूत्र से वैकल्पिक तुत्पुरुष समास हो जाता है। समास विधायक सूत्र में प्रथमा निर्दिष्ट पर द्विताया से बोध्य 'कृष्ण अम्' की 'प्रथया निर्दिष्टं समास उपसर्जनम् श्रु' से उपसर्जन सञ्ज्ञा तथा 'उपसर्जनपूर्वम्' से पूर्व निपात कर 'कृष्ण अम्' + श्रित सु बना। 'कृत्ताद्धितसमासाश्च' से प्रातिपादिक सञ्ज्ञा होकर 'सुपो-धातुप्रातिपदिकयो:' से प्रातिपदिकावय सुपो (अम् और सु) का लुक् होकर 'कृष्णाश्रित' बना। पुनः प्रातिपादिकावयव सुपों का लुक् होने पर भी 'एकदेशविकृत मनन्यवत्' न्यायेन समास की प्रातिपादिक संज्ञा अक्षुण्ण रहने से 'ङयाप्प्रातिपादिकात् सूत्र द्वारा सुषुत्पत्ति के प्रसंङ्ग में प्रथमा एकवचन की विवक्षा में 'सु' प्रत्यय लाने पर 'सु' के अनुनासिक उकार अनुबन्ध का लोप होकर "सुप्तिङन्तं पदम् द्वारा कृष्णाश्रित सु की पदसञ्ज्ञा तथा 'ससजुषो रु' सूत्र पदान्त सकार को रुत्व तथा 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' सूत्र से पदान्त रेक को विसर्गदेश करने पर 'कृष्णाश्रित' प्रयोग सिद्ध हो जाता है।

आशातीत: - (आशा से परे)

लौकिक विग्रह - आशामतीतः
अलौकिक विग्रह आशा अम् + अतीत सु। शेष प्राग्वत्।

कूपपतितः - (कूप में गिरा हुआ)

लौकिक विग्रह - कूप प्रतितः
अलौकिक विग्रह - कूप अम् + पतितसु। शेष पूर्ववत्।

स्वर्गगतः - (स्वर्ग को प्राप्त हुआ)

लौकिक विग्रह - स्वर्ग गतः।
अलौकिक विग्रह - स्वर्ग अम् + गत सु। शेष उपरित्वत्।

कूपात्यस्तः - (कूप में फेंका हुआ)

लौकिक विग्रह - कूपम् अत्यस्तः
अलौकिक विग्रह - कूब अम् + अत्यस्त सु। शेष पूर्ववत्।

सुख प्राप्त - (सुख को प्राप्त हुआ)

लौकिक विग्रह - सुख प्राप्तः
अलौकिक विग्रह - सुख अम् + प्राप्त सु। शेष पूर्ववत्।

कष्टापन्न - (कष्ट को प्राप्त हुआ)

लौकिक विग्रह - कष्टम् आपन्नः।
अलौकिक विग्रह - कष्ट अम् + आपन्न सु। शेष प्राग्वत्।

शङ्कुलाखण्ड: - (सरौते से किया हुआ टुकड़ा)

लौकिक विग्रह - शङ्कुलया खण्डः शङ्कुलाखण्डः।
अलौकिक विग्रह - सङ्कुला टा + खण्ड सु।

यहाँ तृतीयान्त सुवन्त पद 'शङ्कुला टा' का तृतीयान्त पद के अर्थ (वाच्य) से उत्पादित गुण के वाचक 'खण्ड सु' के साथ 'तृतीया तत्कृतार्थेन गुणवचनेन' सूत्र से वैकल्पिक तत्पुरुष समास हो जाता है। 'प्रथमा निर्दिष्ट समास उपसर्जनम्' सूत्र से सूत्रस्य प्रथमा निर्दिष्ट पद 'तृतीया' से बोध्य शङकुला टा की उपसर्जन सञ्ज्ञा तथा 'उपसर्जनंपूर्वम्' से उसका पूर्वनिपात होकर 'शङ्कुला टा' + खण्ड सु बना। 'कृत्तद्वित- समासाश्च' सूत्र से समस्त समुदाय की प्रातिपादिक सञ्ज्ञा तथा 'सुपोधातुप्रतिपदिकयोः' से प्रातिपादिकावयव सुपों का लुक होकर शुकला खण्ड बना। एकदेश 'विकृतमनन्यवत्' न्यायानुसार 'शङ्कुलाखण्ड' की प्रातिपादिक सञ्ज्ञा अक्षुण्ण रहने से 'ङयाय्प्रातिपादिकात्' द्वारा सुबुत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में 'सु' लाने पर उसका रुत्व-विसर्ग करने के बाद शकुलाखण्ड रूप सिद्ध हुआ।

धान्यार्थ - (धान्य के हेतु से धन)

लौकिक विग्रह - धान्येनार्थो धान्यार्थः।
अलौकिक विग्रह - धान्य टा + अर्थ सु। शेष उपरिवत्।

हरित्रातः - (हरि से रक्षा किया हुआ)।

लौकिक विग्रह - हरिणा त्रातो हरित्रातः
अलौकिक विग्रह - हरि ता + त्रात सु।

यहाँ पर कुर्तृतृतीयान्तं सुवन्त 'हरि टा' का कृदन्त प्राकृतिक सुबन्त त्रात सु के साथ 'कृर्तकरणे कृता बहुलम्' सूत्र द्वारा बहुल से तत्पुरुष समास हो जाता है। समासविधायक सूत्र में प्रथमानिर्दिष्ट (अनुवर्तित) तृतीया पद से बोध्य 'हरिता की प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्' से उपसर्जनसञ्ज्ञा तथा ‘उपसर्जनंपूर्वम्' से उपमा पूर्व निपात होकर हरि ता + ता सु रूप बना। 'कृताहितसमासोश्च' से समग्र समुदाय की प्रातिपादिक सञ्ज्ञा तथा सुपो धातुप्रातिपदिकयोः सूत्र से प्रातिपादिक कूसुपों (टा तथा सु) का लुक् होकर हरित्रात बना। एकदेशविकृतमन्यवत् परिभाषा के अनुसार हरित्रात की प्रतिपदिक संज्ञा अक्षुण्ण रहने से 'याप्प्रातिपादिकात् सूत्र द्वारा सुबुत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में 'सु' प्रत्यय लाने पर हरित्रात + सु बना। सुझेक अनुबन्ध लोपोपरान्त हरित्रात स् हुआ। 'सुप्तिङ्तंपदम्' सूत्र द्वारा हरित्रात स् की पदसंज्ञा तथा 'ससजुषो रुः' से पदान्त सकारा को रुत्व-विसर्ग होकर 'हरित्रातः' प्रयोग सिद्ध हुआ !

नखभिन्न: - (नाखूनों से चीरा हुआ)।

लौकिक विग्रह - नखैभिन्नो नखभिन्नः।
अलौकिक विग्रह - नख भिस् + भिन्न सु।

यहाँ पर 'नख भिस्' इस करण तृतीयान्त सुबन्त का 'भिन्न सु' इस सुबन्त के साथ 'कर्तृकरणे कृता बहुलम्' सूत्र से बहुलता से तत्पुरुष समास हो जाता है। पूर्ववत् तृतीयान्त की उपसर्जनसंज्ञा उपसर्जन का पूर्व निपात् समास की प्रातिपादिक संज्ञा तथा प्रातिपादिकावयव सुपों (भिस् और सु) का लुक् कर विभक्ति लाने से प्रथमा के एकवचन में 'नखभिन्नः' प्रयोग सिद्ध हो जाता है।

नखनिर्भिन्न: - ( नाखूनों से चीरा हुआ)।

लौकिक विग्रह - नखैः निर्भिन्नः नखनिर्भिन्नः।
अलौकिक विग्रह - नख भिस् + निर्भिन्न सु।

यहाँ पर करणतृतीयान्त सुबन्त 'नख भिस्' का गतिविशिष्ट कृन्त सुबन्त 'निर्भिन्न सु' के साथ 'कृद्ग्रहणे गीत पूर्वस्यापि ग्रहणम् परिभाषा की सहायता से 'कर्तृकरणे कृता बहुलम्' सूत्र द्वारा तत्पुरुष समास होता है। पूर्ववत् तृतीयान्त की उपसर्जन संज्ञा, पूर्व निपात समास की प्रातिपादिक संज्ञा तथा उसके अवयव सुपों का लुक करने पर विभक्ति लाने से प्रथमा की एकवचन में 'नखनिर्भिन्नः' प्रयोग सिद्ध होता हैं।

यूपदारु - (खम्भे के लिए लकड़ी)

लौकिक विग्रह - यूपाय दारु यूपदारु।
अलौकिक विग्रह - यद्म ङे + दारु सु।

यहाँ पर चतुर्थ्यन्त पद यूप डे' का इसके अर्थ के वाचक (तदर्थ) दारु सु इस सुबन्त के साथ 'चतुर्थी तदर्थार्थवलिहितसुखरक्षितैः' सूत्र से वैकल्पिक तत्पुरुष समास होता है। समासविधायक सूत्र में प्रथमनिर्दिष्ट 'चतुर्थी' पद से बोध्य 'यूप ङे' की सूत्र 'प्रथमा निर्दिष्ट' समास उपसर्जनम् से उपसर्जन संज्ञा तथा 'उपसर्जनंपूर्वम्' से उसका पूर्वनिपात होकर यूपडे + दास सु रूप बना। कृतद्धितसमासाश्च' से समग्र समुदास की प्रातिपादिक संज्ञा तथा 'सुपेधातुप्रातिपदिकयों से उसके अवयव सुपों का लुक हो जाता है तो यूपदारु बनता है। 'एकदेशविकृतमनन्यवत् न्यायेन यूपदारु का प्रातिपादिकत्व अक्षुण्ण रहने से 'डयाप्प्रातिपादिकात्' सूत्र द्वारा प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में 'सु' प्रत्यय आने पर यूपदास + सु बना। परवल्लिंग द्वन्द्वतत्पुरुषयोः सूत्र द्वारा उत्तरपद के लिङ्गानुरूप तत्पुरुष के भी नुपंसक माने जाने से 'स्वमोर्नपुंसकात्' सूत्र के 'सु' का लुक होकर 'यूपदारु प्रयोग सिद्ध हो जाता है।

द्विजार्थः सूपः - (ब्राह्मण के लिए दाल)

लौकिक विग्रह - द्विजाय अर्थः द्विजार्थ (सूपः)
अलौकिक विग्रह - द्विज ङे + अर्थ सु।


यहाँ पर 'अर्थेन नित्यसमासो विशेष्यलिङ्गता चेति वक्तव्यम् इस वार्तिक की सहायता से 'चतुर्थी तदर्थार्थ-बलि-हित-सुख-रक्षितैः' सूत्र द्वारा 'द्विज डे' इस चतुर्थ्यन्त सुबन्त का 'अर्थ सुर' इस सुबन्त के साथ नित्यसमास होकर चतुर्थ्यन्त की उपसर्जन संज्ञा, उपसर्जन का पूर्व निपात् तथा समास प्रातिपादिकसञ्ज्ञा तदवयव सुपों का लुक करने से द्विज + अर्थ सवर्ण दीर्घ होकर 'द्विजार्थ' बना। अव इससे चिशेष्य के अनुसार पुल्लिङ्ग के प्रसंग में प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में 'सु' प्रत्यय लाकर सकार का रुत्व - विसर्ग आदेश करने पर द्विजार्थः बना।

द्विजार्थ - यदि विशेष्य 'पवाम्: (लप्सी) आदि स्त्रीलिङ्ग होता (अर्थात् लौ. वि. द्विजार्थ इयं द्विजार्थ (यवामूः होता) तो स्त्रीत्व की विवक्षा में 'द्विजार्थ शब्द से अजाद्यतष्टाप्' सूत्र द्वारा टाप् (आ) प्रत्यय आने पर 'हल्ङयाभ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल् द्वारा अपृक्त सकार का लोप होकर द्विजार्था (यवामः) प्रयोग सिद्ध हुआ।

द्विजार्थं - यदि विशेष्य 'पयः' आदि नपुंसकलिङ्ग होगा तो नुपसंक प्रक्रिया के अनुसार (लौ. वि. द्विजाय इदं हिजार्थम् (पयः) प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु आने पर 'अतोऽम्' द्वारा 'सु' को अमादेश तथा अमिपूर्वः से पूर्वरूप करने पर द्विजार्थम् (पयः) प्रयोग सिद्ध हो जाता है।

भूतबलिः - (भूतों के लिए बलि)

लौकिक विग्रह - भूतेभ्यो बलिः भूतबलिः।
अलौकिक विग्रह - भूत भ्यस् + बलि सु।


यहाँ पर 'भूत भ्यस्' इस चतुर्थ्यन्त सुवन्त का 'बलि सु' इस समर्थ सुवन्त के साथ चतुर्थी तदर्थार्थ बलि-हित-सुखरक्षितैः सूत्र द्वारा वैकल्पिक पुरुष समास हो जाता है। समास होने पर चतुर्थ्यन्त की उपसर्जन संज्ञा, पूर्वनिपात् समास की प्रातिपादिक संज्ञा तदवयव सुपों का लुक होकर भूतबलि बना। स्पाधुत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु आने पर उसका सत्व विसर्ग आदेश करने पर रूप भूतबलिः प्रयोग सिद्ध होता है।

गोहितम् - (गौओं का हित)
 लौकिक विग्रह - गोभ्यः हितम् गोहितम्।
 अलौकिक विग्रह - गोभ्यसम् + हिंत् सु।

यहाँ पर अलौकिक विग्रह में 'गोभ्यम्' इस चतुर्थ्यन्त सुबन्दत का "हित सु' इस समर्थ सुबन्त के साथ चतुर्थी तदर्थार्थ-बलि-हित-सुख रक्षितैः' द्वारा तत्पुरुष समास हो जाता है। समास विधायक सूत्र में 'प्रथमानिर्दिष्ट' चतुर्थ से बोध 'गोभ्यम्' की उपसर्जन संज्ञा उसका पूर्वनिपात समास की प्रातिपादिक सञ्ज्ञा तथा तदवयव सुपों का लुक होने पर गोहित बना। प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में 'सु' लाने पर पर वल्लिङ्गगं' द्वन्द्वतत्पुरुषयोः च सूत्र से परवल्लिङ्गता के कारण नुपंसक में 'अतोऽम्' द्वारा 'सु' को अम् आदेश होकर पूर्वरूप करने से 'गोहितम् प्रयोग सिद्ध हो जाता है।

गोसुखम् - (गौओं का सुख)

लौकिक विग्रह - गोभ्यः सुखम् गोसुखम्।
अलौकिक विग्रह - गौभ्यस् + सुख सु। शेष उपरिवत्।

गोरक्षितम् - (गौओं के लिए रक्षित तृण आदि)

लौकिक विग्रह- गौभ्य रक्षितं गोरक्षितम्
अलौकिक विग्रह - गोभ्यस् + रक्षित सु। सिद्धि प्रक्रिया पूर्ववत्।

चोरभयम् - चोर से डर)

लौकिक विग्रह - चौराद् भयमर् चोरभयम्
अलौकिक विग्रह - चोर भसि + भय सु।

यहाँ अलौकिक विग्रह में 'चोर ङसि' इस पञ्चम्यन्त सुबन्त का भय सु इस समर्थ सुबन्त के साथ 'पञ्चमी भयेन' सूत्र द्वारा वैकल्पिक तत्पुरुष समास हो जाता है। समास विधायक सूत्र में प्रथमानिर्दिष्ट 'पञ्चमी' से बोध्य 'चोर ङसि' की प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्' से उपसर्जन संज्ञा तथा 'उपसर्जन पूर्वम्' से उसका पूर्वनिपात् कर चोर ङसि + भय सु बना। कृत्तार्द्धितसमासाश्च' से समग्र समुदाय की प्रातिपादिक सञ्ज्ञा तथा 'सुपोधातुप्रातिपादिकयोः' से उसके अवयव सुपों का लुक होकर 'चोरभय' बना। 'एकदेशविकृतमन्यवत्' न्यायेन 'चोरभय' की प्रातिपदिकता अक्षुण्ण रहने से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु आने पर 'परवल्लिङ्ग द्वन्द्वत्पुरुषयोः' सूत्र से परवल्लिङ्गवता के कारण नुपसंक में 'सु' को अतोऽम' से अम् - आदेश होकर अमि पूर्वः' द्वारा पूर्वरूप करने पर 'चोरभयम् प्रयोग सिद्ध हो जाता है।

स्तोकान्मुक्तङ्ग - (थोड़े से मुक्त)

लौकिक विग्रह - स्तोकाद् (स्तोक) युक्तः स्तोकान्मुक्तः स्तोकामुक्तो वा।
अलौकिक विग्रह - स्तोक ङसि + मुक्त सु।


यहाँ अलौकिक विग्रह में स्तोक ङसि इस पञ्चम्यन्त सुबन्त का मुक्त सु इस क्तान्तप्रकृतिक सुबन्त के साथ स्तोकान्तिइरार्थ कृच्छाणि-क्तेन सूत्र द्वारा वैकल्पिक तत्पुरुष समास हो जाता है। समास विधायक सूत्र में प्रथमानिर्दिष्ट पद से बोध्य स्तोक ङसि की 'प्रथमा निर्दिष्ट समास उपसर्जनम्' से उपसर्जन सञ्ज्ञा तथा 'उपसर्जनपूर्वम्' से उसका पूर्व निपात होकर 'स्तोकङसि + मुक्त सु' बना। कृत्तद्वितसमासाश्च 'सूत्र से समग्र समुदाय की प्रातिपादिक सञ्ज्ञा तथा सुपोधातुप्रातिपादिकयोः से प्रातिपादिकावयव सुपों का लुक् प्राप्त हुआ। परन्तु सूत्र 'पञ्चम्याः स्तोकादिभ्यः' से पञ्चमी के लुक् का तो निषेध हो जाता है किन्तु 'सु' का लुक् यथावत् हो जाता है - स्तोक ङसि + मुक्त। अब 'टा ङसि ङसामिनात्स्वाः' सूत्र से ङसि के स्थान पर आत् सर्वादेश होकर सवर्ण दीर्घ होने से 'स्तोकात्' तथा झलां जशोडन्ते से तकार को जश्त्व दकार तथात थरोवनुनासिकडनुनासिकोवा से दकार को विकल्प से अनुनासिक नकार होकर 'स्त्रोकान्मुक्त' तथा 'स्तोकामुक्त' ये दो रूप बनते हैं। एक देशविकृतमनन्यवत् न्यायानुसार सुब्लुक् हो जाने पर भी प्रातिपादिकत्व अक्षुण्ण रहने से सुबुत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा एकवचन की विवक्षा में 'सु' लाने पर अनुबन्ध उकार के लोप सकार को रुत्व तथा रेफ को विसर्गादेश करने पर 'स्तोकान्मुक्तः' तथा 'स्रोताकादमुक्तः' ये दो प्रयोग सिद्ध हो जाते हैं।

समासाभाव में भी सत्रोकान्मुक्तः या स्तोकदमुक्तः प्रयोग ही बनता है।

अन्तिकादागतः - (समीप से आया हुआ)

लौकिक विग्रह - आन्तिकाद् (आन्तिकार) आगतः।
अलौकिक विग्रह - अन्तिकभङसि + आगत सु (शेष पूर्ववत्)।

अभ्याशादागतः - (समीप से आया हुआ) (अभ्याशात्)

लौकिक विग्रह - अभ्याशादागतः (अभ्याशाद् आगतः)
अलौकिक विग्रह - अभ्याश ङसि + आगत सु।

उपर्युक्त दोनों उदाहरणों में अनुनासिक परे न रहने पर 'पराऽनुनासिकेडनुनासिकोवा' का विधान नहीं होगा। शेष पूर्ववत्।

राजपुरुषः - (राजा का सेवक)

लौकिक विग्रह - राज्ञः पुरुषः
अलौकिक विग्रह - राजन् ङस् + पुरुष सु।

यहाँ अलौकिक विग्रह में 'राजन् ङस' इस षष्ठयन्त सुबन्त का पुरुष सु इस समर्थ सुबन्त के साथ- ' षष्ठी' सूत्र द्वारा वैकल्पिक तत्पुरुष समास होता है। समास विधायक सूत्र में प्रथमानिर्दिष्ट षष्ठी सूत्र द्वारा वैकल्पिक तत्पुरुष समास होता है। समास विधायक सूत्र से उपसर्जनसञ्ज्ञा तथा 'उपसर्जनपूर्वम्' से उसका पूर्वनिपात ह्येकर राजन् ङस् + पुरुष रूप बना। 'कृर्त्तादिन समासश्च' सूत्र से समग्र समुदाय की प्रातिपादिकसंज्ञा तथा 'सुपोधातु प्रातिपादिकयोः' से प्रातिपादिकाषयव सुपों के लुक करने पर 'राजन् पुरुष' बना। 'प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षण' द्वारा लुप्त हुई अन्तवर्तिनी विभक्ति (स) को मानकर राजन् के पदत्व के कारण 'न लोपः प्रातिपादिकान्तस्य' सूत्र से नकार का लोप करने पर बना राजपुरुष। पुनः एकदेश के लुप्त हो जाने से विकृत हो जाने पर भी प्रातिपादिक सञ्ज्ञा अक्षुण्ण रहने से स्वादियों की उत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय लाने पर उकार अनुबन्ध का लोप सकारा को रुत्व तथा रेफ विसर्गादेश करने पर 'राजपुरुषः' प्रयोग सिद्ध हो जाता है।

पूर्वकाय: - (शरीर का अगला अर्ध)

लौकिक विग्रह - पूर्वं कायस्य पूर्वकायः।
अलौकिक विग्रह - पूर्व सु + काय स।

यहाँ पर 'पूर्व सु' + काय ङस् इस अलौकिक विग्रह में एकत्वसंख्याविशिष्टि अवयवी के वाचक काम ङ्स के साथ अवयववाचक 'पूर्व सु' का 'पूर्वापथराधरोत्तरमेकदेशिनौकाधिकरणे' सूत्र से वैकल्पिक तत्पुरुष समास हो जाता है। समास विधायक सूत्र में प्रथमानिर्दिष्ट पद पूर्वाधरोत्तरम् से बोध्य 'पूर्व सु' की 'प्रथमानिर्दिष्ट समास उपसर्जनम्' से उपसर्जनसञ्ज्ञा तथा 'उपसर्जनंपूर्वम्' से पूर्व निपात करने पर 'पूर्वसु + काय ड्स बना। 'कृत्ताद्वितसमासाश्च' सूत्र से समग्र समुदाय की प्रातिपादिक सञ्ज्ञा तथा 'सुपोधातुप्रातिपादिकयोः' से 'प्रातिपादिकावयव सुपो का लुक करने पर रूप बनता है पूर्वकाय। 'एकदेशविकृतमनन्यवत्' न्यापने से प्रातिपादिक सञ्ज्ञा के अक्षुण्ण रहने से सुषुत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में 'सु' प्रत्यय लाने पर परवल्लिङ्गता के नियमानुसार पुल्लिङ्ग में 'सु' से सकार को तत्व तथा रेफ को विमदिश करने पर 'पूर्वकाय:' ऐसा प्रयोग सिद्ध हो जाता है।

अपरकाय: - (शरीर का पिछला आधा भाग)

लौकिक विग्रह - अपर कास्य अपरकायः
अलौकिक विग्रह - अपर सु + काय ङस्। शेष प्राग्वत्।

अर्द्ध पिप्पली - (पीपर का ठीक आधा भाग)

लौकिक विग्रह - अर्द्ध पिप्पल्याः अर्द्ध पिप्पली
अलौकिक विग्रह - अर्द्ध सु + पिप्पली स।

यहाँ पर समांश (ठीक आधा भाग) के वाचक 'अर्द्ध सु' इस सुबन्त का 'पिप्पली स' इस एकत्वसंख्याविशिष्ट अवयवी सुबत्त के साथ 'अर्द्ध नुपंसकम्' सूत्र से विकल्प से तत्पुरुष समास हो जाता है। समास विधायक सूत्र में प्रथमानिर्दिष्ट अर्द्ध' पद में प्रथमानिर्दिष्ट अर्द्ध' पद से बोध्य 'अर्द्ध सु' की 'प्रथमा निर्दिष्टं समास उपसर्जनम्' सूत्र द्वारा उपसर्जन सञ्ज्ञा तथा 'उपसर्जनपूर्वम्' द्वारा उसका पूर्वनिपात करने पर बना अर्द्ध सु + पिप्पलीस | 'कृत्तद्वितसमासाश्च' सूत्र से समग्र समुदाय की प्रातिपादिक संज्ञा तथा प्रातिपदिव्यवपद सुपों का 'सुपोधातुप्रातिपादिकयोः से लुक् आदेश करने पर अर्द्ध पिप्पली बना। एक देशविकृतमनन्यवत्' न्यायानुसार सुब्लुक होने पर भी 'अर्द्धपिप्पली' सश्री प्रातिपदिक संज्ञा अक्षुण्ण रहने से सुपुत्पत्ति के प्रसङ्ग में 'ङयाप्प्रातिपादिकात्' सूत्र द्वारा प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में 'सु' आने परवल्लिङ्गता के नियमानुसार स्त्रीलिङ्ग में 'हल्ङयाब्योदीर्घत् सुतिस्पपृक्तं हल्' सूत्र के अपंक्त सकार का लोप होकर अर्द्ध पिप्पली प्रयोग सिद्ध हो जाता है।

अक्षशौण्ड : - (पासों के खेलने में चतुर)

लौकिक विग्रह - अक्षेषु शौण्डः अक्षुशौण्डः
अलौकिक विग्रह - अक्ष सुप् + शौण्ड सु।


यहाँ पर 'अक्ष सुप्' इस सप्तम्यन्त सुबन्त का 'शौण्ड सु' इस समर्थ सुबत्त के साथ 'सप्तमी शौण्डैः' सूत्र द्वारा वैकल्पिक तत्पुरुष समास हो जाता है। पुनः समास विधायक सूत्र में प्रथमानिर्दिष्ट 'सप्तमी' पद से बोध्य अक्ष सुप् की प्रथमानिर्दिष्टं समास 'उपसर्जनम्' से उपसर्जनसंज्ञा तथा 'उपसर्जनं पूर्वम्' से उसका पूर्वनिपात होकर रूप बना अक्ष सुप् + शौण्ड सु। 'कृत्तद्वितसमासाश्च' सूत्र से समग्र समुदाय की प्रातिपदिक सञ्ज्ञा तथा सुपोधातुप्रातिपदिकयोः सूत्र से प्रातिपदिकावयव सुपो का लुक करने पर अक्षशौण्ड बना। प्रथमा में एकवचन की विवक्षा में 'सु' आने पर परवल्लिङ्गता के नियमानुसार पुल्लिङ्ग में सकार का रुत्व विसर्गादेश होकर अक्षशौण्डः रूप सिद्ध हुआ।

पूर्वेषुकामशमी -
(किसी ग्राम का नाम इस नाम का प्राचीन ग्राम)

लौकिक विग्रह - पूर्वा चासौ इषुकामशमी
अलौकिक विग्रह - पूर्वा सु + इषुकामशमी सु।

यहाँ पर 'पूर्वा सु' इस दिशावाची सुबन्त का 'इषुकामशमी' 'सु' इस समर्थ सुबन्त के साथ 'दिक्संख्ये संज्ञायाम्' सूत्र से वैकल्पिक तत्पुरुष समास हुआ है। सूत्रस्थ प्रथमा निर्दिष्ट पद से बोध्य दिशावाची पद 'पूर्वा सु' की 'प्रथमा निर्दिष्ट समास उपसर्जनम्' से उपसर्जनसंज्ञा तथा 'उपसर्जनपूर्वम्' से उसका पूर्व निपात करने पर पूर्वा सु + इषुकामशमी सु बना। समास की प्रातिपादिक संज्ञा तथा उसके अवयव सुपों का लुक करने पर 'पूर्वा इषुकामशमी' बना।

'सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः' वार्तिक से 'पूर्वा को पुंवदभाव के द्वारा पूर्व करने पर पूर्व इषुकामशमी' 'आदगुणः' से गुण एकादेश करने पर पूर्वेषुकामशमी हुआ। अब 'एकदेशविकृतमनन्यवत्' परिभाषानुसार प्रातिपादिकत्व अक्षुण्ण रहने से 'याप्प्रातिपादिकात्' द्वारा स्वादियों की निर्बाध उत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में 'सु' लाने पर वल्लिङ्गता के नियमानुसार स्त्रीलिङ्ग में सकार का 'हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्पृक्तं हल' से लोप होकर रूप सिद्ध हुआ पूर्वेषुकामशमी।

सप्तर्षयः - (विश्वामित्र आदि सात ऋषियों का नाम)

लौकिक विग्रह - सप्त च ते ऋषयः सप्त ऋषयः सप्तर्षयो वा
अलौकिक विग्रह - सप्तन् जस् + ऋषि जस्।

यहाँ पर अलौकिक विग्रह 'सप्तम जस् + ऋषि जस् में सप्तन् जस् इस संख्यावाचक सुबन्त का 'ऋषि जस्' इस समानाधिकरण सुबन्त के साथ 'दिक्संख्ये संज्ञायाम' सूत्र द्वारा विकल्प से तत्पुरुष समास होकर सूत्रस्थ प्रथमानिर्दिष्ट पद से बोध्य 'सप्तम् डास्, की 'प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्' से उपसर्जन सञ्ज्ञा तथा 'उपसर्जनंपूर्वम्' से उसका पूर्वनिपात होकर समास की प्रातिपादिकसंज्ञा तथा सुब्लुक करने पर 'सप्तन् ऋषि' बना 'प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम्' द्वारा लुप्त अन्तर्वतिनी विभक्ति को मानकर पदत्व के कारण न लोपः प्रातिपादिकान्तस्य' से सप्तन् के नकार का लोप होकर 'ऋत्यकः' से वैकल्पिक ह्रस्वमूलक प्रकृतिभाव एवं प्रकृतिभाव के अभाव में आद्गुणः द्वारा गुण करने से सप्तृषि, सप्तऋषि ये दो रूप बने। अब इनसे स्वाद्युत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के बहुवचन की विवक्षा में जिस प्रत्यय लाकर 'जसि च' से इकार के एकार गुण करने पर 'सप्तर्षे अस्' हुआ।

'एचोऽयवायावः' सूत्र से एच् 'ए' को अयादेश होकर 'सप्तर्षय अस' 'सप्तर्षयस' बना 'सुप्तिङन्तं पदम्' से पद सप्तर्षयस् के पदान्त सकार को 'सुसजुषो रु' से रुत्व होकर विसर्गादेश करने पर सप्तृषयः तथा सप्तर्षयः दो प्रयोग सिद्ध हो जाते हैं।

पौर्वशाल: -
( पूर्व दिशा वाली शाला में होने वाला)

लौकिक विग्रह - पूर्वास्यां शालायां भवः पौर्वशालः।
अलौकिक विग्रह - पूर्वा ङि + शाला ङि।

यहाँ 'तत्र भवः' के अर्थ में वक्ष्यमाण सूत्र 'दिक्पूर्वपदादसंज्ञायां ञः' सूत्र से तद्वित प्रत्यय 'ञ' करना है, अतः उसकी विवक्षामात्र में ही 'तद्वितार्थोत्तरपद समाहारे च' से दिशावाची 'पूर्वा ङि' का समानाकिरण 'शाला ङि' के साथ तत्पुरुष समास होता है। अब सूत्रस्थ प्रथमानिर्दिष्ट पद से बोध 'पूर्वा ङि' की 'प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्' से समास सञ्ज्ञा तथा 'उपसर्जनंपूर्वम्' से उसका पूर्व निपात होकर 'पूर्वाङि' + शाला ङि बना। पुनः कृत्तद्धित समासाश्च' से समग्र समुदाय की प्रातिपदिक सञ्ज्ञा व 'सुपोधातुप्रातिपदिकयोः' से प्रातिपादिकावयव सुपों का लुक् होकर पूर्वशाला बना। अब सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुवद्भावः वार्तिक से समासवृत्ति में 'सर्वनाम पूर्वा' को पुंवद्भाव हो 'पूर्व' होकर 'पूर्वशाला' बना। अब प्रातिपादिक 'पूर्वशाला' से तद्धितार्थ के अनुरूप सप्तमी का एकवचन ङि प्रत्यय लाकर पूर्वशाला + ङि बना। पुनः 'तत्रभावः' के अर्थ में वर्तमान दिशावाची पूर्वपद वाले प्रातिपादिक 'पूर्वशाला ङि से 'दिक्पूर्वपदादसंज्ञायांञः' सूत्र द्वारा 'ञ' प्रत्यय होकर 'पूर्वशाला ङि ञ' बना। 'चुट्' द्वारा 'ञ' प्रत्यय का आदि ञकार इत्संज्ञक कर 'तस्यलोपः' से लोप करने पर 'पूर्वशाला ङि अ' बना। तद्वितान्त होने से समग्र समुदाय की 'कृत्तद्वि समासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होकर 'सुपोधातुप्रतिपदिकयो:' से प्रातिपादिकावयव सुप् (ङि) का लुक करने पर 'पूर्वशाला अ' बना। पुनः 'तद्वितेण्वचामादेः' से ञित् प्रत्यय 'ञ' परे रहते 'पूर्वशाला' अङ्ग के आदि अच् ऊकार के स्थान पर वृद्धि होकर औकार होने से 'पौर्वशाला अ' हुआ। 'यचि भम्' से असर्वनामस्थान अजादि स्वादि प्रत्यय (ञ) 'अ' के परे रहते पूर्व की 'भ' संज्ञा होकर 'यस्चेति च' से भसंज्ञक आकार का लोप होकर पौर्वशाल व पौर्वशाल बना। तद्वितान्त होने से पौर्वशाल की 'कृतद्वितसमासाश्च' से प्रातिपादिक संज्ञा होने पर 'ड्याप् प्रतिपादिकात् सूत्र से स्वारियों की निर्बाध उत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में 'सु' प्रत्यय लाकर सकार का सत्व तथा रेफ को विसर्ग आदेश करने में पौर्वशालः प्रयोग सिद्ध हो जाता है।

नीलोत्पलम् - (नीला कमल)

लौकिक विग्रह - नीलमुत्पलम् नीलोत्पलम्।
अलौकिक विग्रह - नील सु + उत्पल सु।

यहाँ नील 'सुर' इस विशेषण का 'उत्पल सु' इस विशेष्य के साथ 'विशेषणं विशेष्येण बहुलम्' सूत्र द्वारा समास हो जाता है। समास विधायक सूत्र में प्रथमानिर्दिष्ट 'विशेषणं' पद से बोध्य 'नील सु' की 'प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्' बना। पुनः 'कृत्तद्वित समासाश्च' सूत्र से प्रातिपादिक संज्ञा तथा 'सुपोधातु प्रातिपादिकयोः से प्रातिपादिकावयव सुपों (सु) का लुक् होकर 'नील + उत्पल' बना आदगुणः द्वारा गुणसन्धि करने पर नीलोत्पल बना। 'एकदेश विकृतमनन्यवत्' न्याय के अनुसार 'नीलोत्पल' की प्रातिपादिक संज्ञा अक्षुण्ण रहने से ङ्यापप्रातिपादिकात् सूत्र द्वारा स्वादियों की निर्बाध उत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में 'सु' लाने पर 'परवल्लिङ्ग द्वन्द्वतत्म्पुरुषयोः' से नीलोत्पल के नुपसंक होने से 'अतोऽम्' से सु को अमादेश तथा अमिपूर्वः द्वारा पूर्वरूप एकादेश होकर 'नीलोत्पलम्' यह प्रयोग सिद्ध हो जाता है।

घनश्याम : - (बादल की तरह श्यामवर्ण वाला)

लौकिक विग्रह - घन इव श्यामः घनश्यामः
अलौकिक विग्रह - घन सु + श्याम सु

यहाँ 'घन सु' उपमानवाची सुबन्त का अपने सामान्यवाची समानाधिकरण सुबन्त 'श्याम सु' के साथ 'उपमानानि सामान्यवचनैः' सूत्र से तत्पुरुष समास हुआ है। सूत्रस्थ प्रथमानिर्दिष्ट 'उपमानानि' पर से बोध्य 'घन सु ́ की उपसर्जन सञ्ज्ञा होकर पूर्व निपात समास की प्रातिपादिक संज्ञा, सुपों का लुक होकर घनश्याम बना। अब एक देश न्याय से प्रातिपदिक 'घनश्याम से परे प्रथमा एकवचन की विवक्षा में 'सु' आने पर परवल्लिङ्गता के अनुसार पुल्लिङ्ग में सु के सकार को रुत्व तथा रेफ को विसर्ग करने से 'घनश्यामः' प्रयोग सिद्ध हो जाता है।

कृष्णसर्प:- (काला साँप)

लौकिक विग्रह - कृष्णः सर्पः
अलौकिक विग्रह - कृष्ण सु + सर्प सु।

'विशेषण विशेष्येण बहुलम्' सूत्र से 'बहुलम्' के ग्रहण के कारण नित्य समास। शेष पूर्ववत्।

पञ्चगणधनः - (पाँच गायें या बैल जिसका धन है ऐसा)

लौकिक विग्रह - पञ्च गावों धनं यस्य सः पञ्चगवधनः।
अलौकिक विग्रह - पञ्चन् जस् + गो जस् + धन सु।

यहाँ त्रिपद बहुब्रीहि समास के 'पञ्चन् जस् + गो जस् + धन सु ́ इस अलौकिक विग्रह में 'अनेकमन्यपदार्थे' सूत्र द्वारा बहुब्रीहि समास होकर 'कृताद्वितसमासाश्चः द्वारा उसकी प्रातिपादिक संज्ञा करने पर 'सुपोधातुप्रातिपादिकयोः' से सुपों (जस् जल और सु) का लुक् होकर पञ्चन् + गो धन बना। अब उत्तरपद. 'धन' परे रहने से 'तद्वितार्थोन्तर पद समाहारे च' से बहुब्रीहि समास के अन्दर 'पञ्चन्' इस संख्यावाची पद का समानाधिकरण 'गो' पद के साथ अवन्न्तर तत्पुरुष होकर प्रथमानिर्दिष्ट 'पञ्चन्' का पूर्वनिपात हो जाता है पुनः वैकल्पिक अवान्तर समास को 'द्वन्द्वतत्पुरुषयोरुत्तरपदे नित्यसमासवचनम्' सूत्र से नित्यता का विधान हुआ। अब 'पञ्चन्' + गो इस नित्य समास में प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षण द्वारा लुप्त हुई अन्तवर्तिनी विभक्ति को मानकर पदत्व के कारण 'न लोपः प्रातिपादिकान्तस्य' से लोप होकर पञ्च + गो स्थिति में अवान्तर तत्पुरुष 'पञ्चगो' से 'गोरतद्धितलुकि' सूत्र से समासान्त टच् (अ) प्रत्यय का विधान होकर पञ्चगोअ + धन = पञ्चगवधन बना। अब 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से त्रिपदबहुब्रीहि समास की प्रातिपादिक संज्ञा होकर ङ्याप्प्रातिपादिकात् से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा से 'सु' आकार 'पञ्चगवधनः' प्रयोग सिद्ध होता है।

पञ्चगवम् - (पाँच गायों या बैलों का समूह)

लौकिक विग्रह - पञ्चानां गवां समाहारः पञ्चगवम्।
अलौकिक विग्रह - पञ्चन् आम + गो आम्।

यहाँ अलौकिक विग्रह में समाहार अर्थ में तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च' सूत्र से 'पञ्चन् आम' इस संख्यावाचक सुबन्त का 'गोआम्' इस समानाधिकरण सुबन्त के साथ तत्पुरुष समास हो जाता है। 'संख्यापूर्वी द्विगु:' सूत्र से इस समास की द्विगुसञ्ज्ञा भी हो जाती है। समास विधायक सूत्र में प्रथमानिर्दिष्ट (अनुवर्तित) दिक्संख्ये' पद से ब्रोध्य 'पञ्चन् आम्' की उपसर्जन सञ्ज्ञा होकर 'उपसर्जनंपूर्वम्' से उस का पूर्वनिपात होकर पञ्चम् आम् + गो आम् बनता है। अब कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपादिक सञ्ज्ञा तथा 'सुपोधातुप्रातिपदिकयोः' से प्रातिपादिकावयव सूपों का लुक होकर रूप बना 'पञ्चन् गो'। 'प्रत्ययलोपे प्रत्ययलणम्' से पञ्चन् के पदत्व के कारण 'न लोपः प्रातिपादिकान्तस्य' से नकार का लोप होकर पञ्चगो बना। 'गोरतद्धितलुकि' से 'पञ्चगों' से समासान्त टच् (अ) प्रत्यय करने पर पञ्चगो + अ = 'पञ्चगव' बना।

'एकदेशविकृतमनन्यवत्' न्याय के अनुसार प्रातिपादिकसंज्ञा के निर्बाध रहने से 'पञ्चगाव' के आगे स्वादियों की उत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमाविभक्ति की विवक्षा में 'द्विगुरेकवचनम्' से एकवचन तथा 'स नपुंसकम्' से नुपंसकलिङ्ग होने से 'सु' प्रत्यय लाकर अतोऽम्' से अमादेश तथा 'अमिपूर्वः' से पूर्वरूप एकादेश करने पर 'पञ्चगवम् प्रयोग सिद्ध हो जाता है।

शाकपार्थिव: - (शाक भक्षण का प्रेमी राजा)
लौकिक विग्रह - शाक प्रियः पार्थिवः शाकपार्थिवः
अलौकिक विग्रह - शाक प्रिय सु + पार्थिव सु।

यहाँ 'शाक प्रिय सु' इस विशेषण का 'पार्थिव सु ́ इस विशेष्य के साथ 'विशेषणं विशेष्येण बहुलम्' सूत्र द्वारा समास होकर विशेषण का पूर्वनिपात समास की प्रातिपादिक संज्ञा तथा 'सुपोधातुप्रातिपादिकयोः' से सुपों का लुक करने पर शामप्रियपार्थिव बना। 'शाकपार्थिवादीनां' सिद्धये उत्तरपदलोपस्योपसंख्यानम्' इस वार्तिक से 'शाकप्रिय' शब्द के उत्तरपद 'प्रिय' का लोप कर विभक्ति लाने से 'शाक पार्थिवः' प्रयोग सिद्ध हो जाता है।

देवब्राह्मणः -
(देवताओं की पूजा करने वाला ब्राह्मण)

लौकिक विग्रह - देवपूजकों ब्राह्मणः देवब्राह्मणः।
अलौकिक विग्रह - देवपूजक सु + ब्राह्मण सु। प्राग्वत् सिद्ध।

अब्राह्मण: - (ब्राह्मण से भिन्न पर तत्दृश क्षतियादि)

लौकिक विग्रह - न ब्रह्मणः अब्राह्मणः।
अलौकिक विग्रह - न + ब्राह्मण सु।

यहाँ 'नञ्' अव्यय न का ब्राह्मण 'सु' इस सुवन्त के साथ 'नञ्' सूत्र से तत्पुरुष समास होकर 'प्रथमानिर्दिष्ट समास उपसर्जनम्' से सूत्रस्थ प्रथमानिर्दिष्ट पद 'नञ्' से बोध्य न की उपसर्जन सञ्ज्ञा तथा 'उपसर्जनंपूर्वम्' से उसका पूर्वनिपात, समास की प्रातिपादिकसञ्ज्ञा, सुपो का लुक करने पर 'न ब्राह्मण' बना। अब ब्राह्मण उत्तरपद के रहते 'न लोपो नञः सूत्र द्वारा आदि 'न' वर्णन का लोप करने से 'अब्राह्मण' बना 'एकदेशविकृतमनन्यवत् न्याया से प्रातिपदिक सञ्ज्ञा अक्षुण्ण रहने से स्वाद्युत्पत्ति के प्रसंङ्ग में प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में 'सु' प्रत्यय लाकर सकारा को रत्व तथा रेफ को विसर्ग आदेश करने पर 'अब्राह्मणः' प्रयोग सिद्ध हो जाता है।

अनश्वः - (अश्व से भिन्न पर अश्व सदृश गधा आदि)

लौकिक विग्रह - न अश्वः अनश्वः
अलौकिक विग्रह - न + अश्व सु।

यहाँ पर नत्र अव्यय 'न' का 'अश्वसु' इस सुबन्त के साथ 'नञ्' सूत्र से तत्पुरुष समास हुआ है। 'न' की उपसर्जन संज्ञा होकर पूर्वनिपात समास की प्रातिपादिकसञ्ज्ञा होकर सुप् लुक् करने से 'न अश्व' बना। अब अश्व के उत्तरपद रहने न लोप नञः से नञ् के 'न' वर्ण को लोप से 'अ' अश्व हुआ। परन्तु तस्मान्नुडचि सूत्र से अजादि उत्तरपद अश्व को 'आद्यन्तौ टकितौ' सूत्र की सहायता से आदि में 'नुट्' (न्) आगम होकर 'अन अश्व' = अनश्व बना। एकदेशविकृतमन्तयवत् न्यायेन, समास की प्रीतिपादिक संज्ञा अक्षुण्ण रहने से स्वादियों की उत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में 'सु' प्रत्यय लाकर सकार को रुत्व तथा रेफ को विसर्गादेश करने पर अनश्वः सिद्ध हो जाता है।

कुपुरुष: - (निन्दित, दृष्ट पापी या ओछा पुरुष)

लौकिक विग्रह - कुत्सितः पुरुषः कुपुरुषः
अलौकिक विग्रह - कु + पुरुष सु।

यहाँ 'कु' इस अव्यय का 'पुरुष सु' इस सुबन्त के साथ 'कुगतिप्राक्ष्य:' इस सूत्र द्वारा नित्य तत्पुरुष समास होता है। प्रथमानिर्दिष्ट होने से 'लु' की उपसर्जन सञ्ज्ञा पूर्वनिपात समास की प्रातिपादिक सञ्ज्ञा तथा सुब्लुक करने से कुपुरुष बना। एकदेशविकृतन्याय से प्रातिपादिक सञ्ज्ञा होने से विभक्युपत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा से एकवचन की विवक्षा में सु आने से 'कुपरुषः' सिद्ध हो जाता है।

ऊरीकृत्य : - (स्वीकार करके)

यहाँ पर उर्पादिगण में पठित 'ऊरी' शब्द की 'कृ' धातु अर्थात् 'कृत्वा' के साथ योग होने पर 'ऊर्यादिच्विडाचश्च' सूत्र से गतिसञ्ज्ञा (प्राग्ीश्वरान्निपाताः) से निपात सञ्ज्ञा तथा स्वरादिनिपातमव्ययम् से अव्यय संज्ञा भी हुई। अब गतिसंज्ञक 'ऊरी' शब्द का 'कृत्वा' इस सुबन्त के साथ 'कुगति पादपः' सूत्र से नित्य तत्पुरुष समास हो जाता है। समासाविधायकं सूत्र में प्रथमानिर्दिष्ट होने से गति की उपसर्जन संज्ञा तथा उसका पूर्वनिपात हो जाता है। गतिसंज्ञक 'ऊरी' तथा क्त्वा प्रत्यान्त 'कृत्वा' दोनों के अव्यय होंने से सुब्लुक का प्रसङ्ग ही नहीं उठता क्योंकि इनसे परे औत्सर्गिक सु का अव्ययादात्सुपः से पहले ही लुक् हो चुका होता है। उरीकृत्वा ऐसा समास हो जाने पर 'समासेङनञ्पूर्वे क्क्वोल्यूप सूत्र से कृत्वा के अन्त में क्क्वा के 'ल्यप्' (प) आदेश तथा ह्रस्व्यपिति कृति लुक्' सूत्र द्वारा 'आद्यन्तौ टकितौ' की सहायता से अन्त्य तुक् (त) का आगम करने पर ऊरी 'कृ त् य = ऊरीकृत्य बना। अब क्त्वा के स्थान पर हुए व्यक् को स्थानिवद्भव के कारण क्त्वा मानकर समस्त शब्द की 'क्त्वा तो सुन कुसुनः' से अव्यय संज्ञा हो जाती है।

'कृत्तहितसमासाश्च से प्रातिपादिक 'ऊरीकृत्य' से पर 'ड्याप् प्रातिपादिकात्' द्वारा निर्बाध सुबुत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के एकवचन में 'सु' प्रत्यय आने पर 'अव्ययादाप्सुपः' से सु का लुक् होकर 'ऊरीकृत्यः' प्रयोग सिद्ध हो जाता है।

सुपुरुष: - (सुन्दर या भला पुरुष)

लौकिक विग्रह - शोभनः पुरुषः सुपुरुषः
अलौकिक विग्रह - सु + पुरुष सु।

यहाँ प्रादियों में पठित निपात 'सु' का समर्थ सुबत्त पुरुष 'सु' के साथ 'कु-गति प्रादयः' सूत्र द्वारा नित्य तत्पुरुष समास हो जाता है। प्रथमानिर्दिष्ट उपसर्जन 'सु' का पूर्वनिपात समग्र समुदाय की प्रातिपादिकसंज्ञा, सुप् 'सु' का लुक होकर सुपुरुष बना। एकदेशविकृतमनन्यवत् न्याय से प्रातिपादिकत्वात् 'सुपुरुष' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में 'सु' आने पर सुपुरुषः प्रयोग सिद्ध हो जाता है।

प्राचार्य: - (आगे दूर गया हुआ आचार्य, अर्थात् आचार्य का गुरु, अथवा स्वविषय का परगामी आचार्य)

लौकिक विग्रह - प्रगतः आचार्य: प्राचार्यः।
अलौकिक विग्रह - प्र + आचार्य सु

यहाँ पर 'गत विप्रकृष्ट' अर्थ में वर्तमान प्र निपात का आचार्य सु इस प्रथमान्त समर्थ सुबन्त के साथ प्रादयो गताद्यर्थे प्रथमया वार्तिक से नित्यतत्पुरुष समास हो जाता है। 'प्रादयः' इस प्रथमानिर्दिष्ट पद से बोध्य 'प्र' की उपसर्जन संज्ञा होकर पूर्वनिपात् समास की प्रातिपादिक सञ्ज्ञा तथा सुप् का लुक 'अक सवर्णे दीर्घः' से सवर्णदीर्घ एकादेश कर प्राचार्य बना। पुनः प्रातिपादिक से एकवचन (प्रथमा) की विवक्षा में 'सु' प्रत्यय लाने पर प्राचार्यः सिद्ध हो जाता है।

कुम्भकार: - (घट को बनाने वाला)

लौकिक विग्रह - कुम्भ करोतीति कुम्भकारः
अलौकिक विग्रह - कुम्भ स + कार सु।

यहाँ 'तलोपपदं सप्तमीस्थम् अधिकार के अन्तर्गत 'कुम्भ' कर्म के उपपद होने पर 'कृ' धातु से 'कर्मण्यण' सूत्र द्वारा कर्ता अर्थ में कृत्संज्ञक 'अण्' प्रत्यय अनुबन्धलोप तथा 'अचोञ्णिति' से ऋणवर्ण को वृद्धिरपर (आर) करने पर 'कार' बन जाता है। कृदन्त 'कार' के योग में 'कर्तृकर्मणोः कृति' सूत्र द्वारा कर्मीभूत कुम्भशब्द से षष्ठी विभक्ति लाकर कुम्भ + ङस् + कार विग्रह स्थापित होता है। अब 'उपपद मतिङ्' सूत्र से 'कुम्भस' इस उप पदसंज्ञक सुबन्त का 'कार' इस समर्थ शब्द (न कि सुबन्त) के साथ नित्य तत्पुरुष समास होकर प्रथमानिर्दिष्ट उपपद की उपसर्जनसंज्ञा, उपसर्जन का पूर्णनिपात 'कृतद्धित समाशाश्च' से समुदाय की प्रातिपादिक संज्ञा तथा सुप् (स) का लुक करने पर 'कुम्भकार' शब्द निष्पन्न होता है। पुनः प्रातिपदिकत्वात् विभक्ति व्युत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय लाने पर 'कुम्भकारः' शब्द बनता है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- निम्नलिखित क्रियापदों की सूत्र निर्देशपूर्वक सिद्धिकीजिये।
  2. १. भू धातु
  3. २. पा धातु - (पीना) परस्मैपद
  4. ३. गम् (जाना) परस्मैपद
  5. ४. कृ
  6. (ख) सूत्रों की उदाहरण सहित व्याख्या (भ्वादिगणः)
  7. प्रश्न- निम्नलिखित की रूपसिद्धि प्रक्रिया कीजिये।
  8. प्रश्न- निम्नलिखित प्रयोगों की सूत्रानुसार प्रत्यय सिद्ध कीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित नियम निर्देश पूर्वक तद्धित प्रत्यय लिखिए।
  10. प्रश्न- निम्नलिखित का सूत्र निर्देश पूर्वक प्रत्यय लिखिए।
  11. प्रश्न- भिवदेलिमाः सूत्रनिर्देशपूर्वक सिद्ध कीजिए।
  12. प्रश्न- स्तुत्यः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  13. प्रश्न- साहदेवः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  14. कर्त्ता कारक : प्रथमा विभक्ति - सूत्र व्याख्या एवं सिद्धि
  15. कर्म कारक : द्वितीया विभक्ति
  16. करणः कारकः तृतीया विभक्ति
  17. सम्प्रदान कारकः चतुर्थी विभक्तिः
  18. अपादानकारकः पञ्चमी विभक्ति
  19. सम्बन्धकारकः षष्ठी विभक्ति
  20. अधिकरणकारक : सप्तमी विभक्ति
  21. प्रश्न- समास शब्द का अर्थ एवं इनके भेद बताइए।
  22. प्रश्न- अथ समास और अव्ययीभाव समास की सिद्धि कीजिए।
  23. प्रश्न- द्वितीया विभक्ति (कर्म कारक) पर प्रकाश डालिए।
  24. प्रश्न- द्वन्द्व समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  25. प्रश्न- अधिकरण कारक कितने प्रकार का होता है?
  26. प्रश्न- बहुव्रीहि समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  27. प्रश्न- "अनेक मन्य पदार्थे" सूत्र की व्याख्या उदाहरण सहित कीजिए।
  28. प्रश्न- तत्पुरुष समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  29. प्रश्न- केवल समास किसे कहते हैं?
  30. प्रश्न- अव्ययीभाव समास का परिचय दीजिए।
  31. प्रश्न- तत्पुरुष समास की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  32. प्रश्न- कर्मधारय समास लक्षण-उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- द्विगु समास किसे कहते हैं?
  34. प्रश्न- अव्ययीभाव समास किसे कहते हैं?
  35. प्रश्न- द्वन्द्व समास किसे कहते हैं?
  36. प्रश्न- समास में समस्त पद किसे कहते हैं?
  37. प्रश्न- प्रथमा निर्दिष्टं समास उपर्सजनम् सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  38. प्रश्न- तत्पुरुष समास के कितने भेद हैं?
  39. प्रश्न- अव्ययी भाव समास कितने अर्थों में होता है?
  40. प्रश्न- समुच्चय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  41. प्रश्न- 'अन्वाचय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित समझाइये।
  42. प्रश्न- इतरेतर द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  43. प्रश्न- समाहार द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरणपूर्वक समझाइये |
  44. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  45. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  46. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति के प्रत्यक्ष मार्ग से क्या अभिप्राय है? सोदाहरण विवेचन कीजिए।
  47. प्रश्न- भाषा की परिभाषा देते हुए उसके व्यापक एवं संकुचित रूपों पर विचार प्रकट कीजिए।
  48. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की उपयोगिता एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  49. प्रश्न- भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का मूल्यांकन कीजिए।
  50. प्रश्न- भाषाओं के आकृतिमूलक वर्गीकरण का आधार क्या है? इस सिद्धान्त के अनुसार भाषाएँ जिन वर्गों में विभक्त की आती हैं उनकी समीक्षा कीजिए।
  51. प्रश्न- आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ कौन-कौन सी हैं? उनकी प्रमुख विशेषताओं का संक्षेप मेंउल्लेख कीजिए।
  52. प्रश्न- भारतीय आर्य भाषाओं पर एक निबन्ध लिखिए।
  53. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा देते हुए उसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- भाषा के आकृतिमूलक वर्गीकरण पर प्रकाश डालिए।
  55. प्रश्न- अयोगात्मक भाषाओं का विवेचन कीजिए।
  56. प्रश्न- भाषा को परिभाषित कीजिए।
  57. प्रश्न- भाषा और बोली में अन्तर बताइए।
  58. प्रश्न- मानव जीवन में भाषा के स्थान का निर्धारण कीजिए।
  59. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा दीजिए।
  60. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  61. प्रश्न- संस्कृत भाषा के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिये।
  62. प्रश्न- संस्कृत साहित्य के इतिहास के उद्देश्य व इसकी समकालीन प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिये।
  63. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन की मुख्य दिशाओं और प्रकारों पर प्रकाश डालिए।
  64. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के प्रमुख कारणों का उल्लेख करते हुए किसी एक का ध्वनि नियम को सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भाषा परिवर्तन के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  66. प्रश्न- वैदिक भाषा की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  67. प्रश्न- वैदिक संस्कृत पर टिप्पणी लिखिए।
  68. प्रश्न- संस्कृत भाषा के स्वरूप के लोक व्यवहार पर प्रकाश डालिए।
  69. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के कारणों का वर्णन कीजिए।

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